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द्वैताद्वैत sentence in Hindi

pronunciation: [ devaitaadevait ]

Examples

  1. परमात्माके विषयमें द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्ठाद्वैत आदि अनेक मतभेद हैं, पर ‘ सब कुछ परमत्मा ही हैं '-यह सर्वोपरि सिद्धान्त है ।
  2. “ भर्तृप्रपञ्च ”-ये विशिष्ट वेदान्त के आचार्य थे, इन्होंने कठ और बृहदारण्यक पर भाष्य की रचना की थी, इनके मत में द्वैताद्वैत-भेदाभेद है ।
  3. इस पुराण में सकाम कर्म, निष्काम कर्म, ज्ञान साधना, सिद्धि साधना, भक्ति, अनुग्रह, मर्यादा, द्वैत-अद्वैत, द्वैताद्वैत, निर्गुण-सगुण तथा व्यक्त-अव्यक्त रहस्यों का समन्वय उपलब्ध होता है।
  4. श्रीशंकराचार्य, श्रीविष्णुस्वामी, श्रीचैतन्य महाप्रभु आदि जितने महापुरुष हुए हैं, उन्होंने द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, अचिन्त्यभेदाभेद आदि नामोंसे अपने-अपने दर्शानोंमें परमात्माके साथ जीवका घनिष्ठ सम्बन्ध माना है ।
  5. इनमें शामिल हैं निंबार्क, जिन्होंने द्वैताद्वैत की स्थापना की, अरविंद मिशन की मां मीरा जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता का समर्थन किया, श्री सत्य साई बाबा जो पूजा में धार्मिक एकता का समर्थन करते हैं, स्वामी सुंदर चैतन्यानंदजी.
  6. इनमें शामिल हैं निंबार्क, जिन्होंने द्वैताद्वैत की स्थापना की, अरविंद मिशन की मां मीरा जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता का समर्थन किया, श्री सत्य साई बाबा जो पूजा में धार्मिक एकता का समर्थन करते हैं, स्वामी सुंदर चैतन्यानंदजी.
  7. आपकी जानकारी के लिए बता दूँ, श्री आदिशंकराचार्य से पहले श्रीनिम्बार्काचार्य ने द्वैताद्वैत, श्री आदिशंकराचार्य के बाद श्रीरामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत, श्रीमध्वाचार्य ने द्वैतमत और श्रीवल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैत मत के अनुसार वैदिक सिधान्तों की स्थापना की थी.
  8. द्वैताद्वैत जब तक मां से हम जुदा नही उसकी ममताको हमने छुआ नही जब तक मातृ-भूमि से हम दूर नही उसकी मिट्टी की महक से हम मगरूर नही अद्वैत भले हो अटल अनन्त सत्य द्वैत है लीलाधारी की क्रीडा का कृत्य ब्रह्म हो या मां या हो मातृ-भूमि अद्वैत नही, द्वैत ही जगाती प्रेम अनुभूति
  9. श्री निम्बार्काचार्य ने जीव, माया, जगत आदि का ब्रह्म से द्वैताद्वैत स्थापित किया है, किन्तु इससे पहले कि हम ' जीव-ब्रह्म ऐक्य ' या ' जीव-ब्रह्म पार्थक्य ' की चर्चा करें, यह उचित होगा कि ब्रह्म आदि के सम्बन्ध में निम्बार्क के मत का पहले पृथक पृथक रूप से उल्लेख कर लिया जाये।
  10. “ हे परम श्रद्धालु भक्त! परात्पर अप्रमेय, काल क़ी भूत, भविष्य एवं वर्त्तमान क़ी सीमा से परे, संज्ञान में होते हुए भी किसी संज्ञा विशेष के प्रतिबन्ध से विमुक्त, द्वैताद्वैत क़ी सार्थकता के स्वयं प्रमाण स्वरुप होते हुए भी सूक्ष्म एवं स्थूल भेद से सरल एवं दुरूह गति वाली स्थैतिक ऊर्जा के कारण अस्तित्व में आने वाले पुरुष क़ी दृश्यमान शाखा प्रकृति क़ी जटिलता के साथ चलने के लिये उसकी ससंभ्रात्मक कुटिलता के कुचक्र क़ी परिधि से परे रहना पडेगा. ”
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