कल्याणप्रद meaning in Hindi
pronunciation: [ kelyaanepred ]
Examples
- जैसे एक कुशल सारथी घोड़ों को हांकता है और उनको चाबुक के द्वारा नियन्त्रण में रखता है वैसे ही जो मन मनुष्यों को आगे बढ़ाता है , जो हृदय में प्रतिष्ठित रहता है , जरावस्था से मुक्त है और अतिवेगशाली है वह मेरा मन शान्त , शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे ।
- मंत्रदृष्टाऋषि ने इस मंत्र में चारों देवताओं से समस्त विश्वके कल्याण की प्रार्थना की है-- स्वस्ति नः इंद्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नःपुषा विश्ववेदाः स्वति नः तार्क्ष्योअरिष्टनेभिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातुः-- महनीय कीर्ति वाला इन्द्र हमारा कल्याण करे , विश्व का ज्ञान रखने वालाउषाहमें कल्याणप्रद हो, अरिष्टनेमितार्क्ष्य हमारा मंगल करे और बृहस्पति हमारेघर में कल्याण की प्रतिष्ठा करे.
- मन्त्र कहता है कि जो मानव मन व्यक्ति के जाग्रत अवस्था में दूर तक चला जाता है और वही सुप्तावस्था में वैसे ही लौट आता है , जो दूर तक जाने की सामर्थ्य रखता है और सभी ज्योतिर्मयों की भी ज्योति है , वैसा मेरा मन शान्त , शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे ।
- मैं कर्मवश जिस योनि में जन्म लूँ , वहीं श्री रामजी ( आप ) के चरणों में प्रेम करूँ ! हे कल्याणप्रद प्रभो ! यह मेरा पुत्र अंगद विनय और बल में मेरे ही समान है , इसे स्वीकार कीजिए और हे देवता और मनुष्यों के नाथ ! बाँह पकड़कर इसे अपना दास बनाइए ॥ 2 ॥
- इस मन्त्र के अनुसार जिस अमृतमय ( जो मरणशील नहीं ) मन के द्वारा भूतकाल , वर्तमान तथा भविष्यत्काल का ज्ञान संगृहीत रह्ता है और जिस मन के द्वारा अग्निष्टोम नाम के दीर्घकालिक यज्ञ को विस्तार दिया जाता है जिसमें सात अग्निहोत्रों की भूमिका रहती है , वह मेरा मन शान्त , शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे ।
- इस मन्त्र का तात्पर्य कुछ इस प्रकार दिया जा सकता है : जिस ( मन ) के द्वारा यज्ञ में उस ( यज्ञ ) की क्रियाविधि के समुचित ज्ञान के रहते हुए कर्मशील , धैर्यवान मनीषीजन कर्म सम्पादित करते हैं , जो अपूर्व है , यज्ञकार्य की क्षमता रखता है , और जो प्रजाओं ( मानवों ) के अन्तस् में स्थित रहता है वह मेरा मन शान्त , शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे ।।
- अर्थात् जो प्रजाओं ( मनुष्यों ) में प्रज्ञा ( गहन तथा निर्णयात्मक सामर्थ्य वाला ज्ञान ) , चेतना और धैर्य रूप में अवस्थित है ( या इनका आधार है ) , जो प्रजाओं के अन्तस् में अमृत ( मरणशीलता से परे ) सत्ता एवं ज्योति के रूप में विद्यमान रहता है , और जिसके अभाव में कोई भी कर्म कर पाना सम्भव नहीं , वह मेरा मन शान्त , शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे ।
- जिस मन में ऋचाएं ( ऋग्वेद-मन्त्र ) , साम ( सामवेद-मन्त्र ) तथा यजुः ( यजुर्वेद-मन्त्र ) प्रतिष्ठित रह्ते हैं , ठीक वैसे ही जैसे रथचक्र के आरे उसके केन्द्र पर गुंथे रहते हैं ( अर्थात् जिनका मनन एवं उच्चारण मन द्वारा ही होता है ) , और जिस मन से प्रजाओं ( मानवों ) की समस्त चेतना शक्ति ( पदार्थगत ज्ञान एवं उसकी समीक्षा की सामर्थ्य ) ओतप्रोत रहती है , वह मेरा मन शान्त , शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे ।