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ख़िज़ाँ meaning in Hindi

pronunciation: [ kheijan ]
ख़िज़ाँ meaning in English

Examples

  1. फूल बरसों तक चढाएँ पत्थरोंपरनाम तब आया हमारा उन लबोंपरप्यास दिल कि कब बुझी है आँसुओंसे ? कम नहीं था वरना पानी आरिज़ोंपरयह दुवा है उम्रभर वह मुस्कुराएजान भी कुरबान ऐसी हसरतोंपरक्या चलन बदला हुआ है मौसमोंका ?क्यों ख़िज़ाँ छाने लगी है कोंपलोंपर ?आँधियोंने फिर...
  2. सन् १ ९ ३ ० और १ ९ ४ ० के दशकों की हिन्दी फ़िल्मों के गानों के प्रशंसक आज भी बिब्बो के गानों को याद करते हैं , जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं - ओ जादूगर मतवाले , तुमने मुझको प्यार सिखाया और ख़िज़ाँ ने आके चमन को उजाड़ देना है।
  3. ' बोले मेरी ग़ज़ल' के अशआर ने जब मुझसे बोलना शुरू किया तो मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे एक शाने पर बहार ने हाथ रख दिया हो और दूसरे शाने पर ख़िज़ाँ ने, और यूँ महसूस हुआ के आसपास दुनिया के बहुत सारे मनाज़िर यक बयक रोशन होकर क़तारों मे खड़े हो गए हों।
  4. प्यारेलाल : यह जो गाना है “ ख़िज़ाँ के फूल पे आती कभी बहार नहीं , मेरे नसीब में ऐ दोस्त तेरा प्यार नहीं ” , इससे पहले हमने गाना रेकॊर्ड किया था उनका “ फूल आहिस्ता फेंको ” , मुकेश जी गाये , और ये आये थे शाम को , इनको रात की फ़्लाइट पकड़नी थी।
  5. इन तीनों गायकों के इस फ़िल्म के लिए गाये एकल गीतों की बात करें तो मुकेश की आवाज़ में फ़िल्म का शीर्षक गीत था “ दो रंग दुनिया के और दो रास्ते ” , किशोर दा ने गाया था “ ख़िज़ाँ के फूल पे आती कभी बहार नहीं ” , तथा रफ़ी साहब की आवाज़ में था “ ये रेशमी ज़ुल्फ़ें ये शरबती आँखें ” ।
  6. पूछ न मुझसे दिल के फ़साने इश्क़ की बातें इश्क़ ही जाने वो दिन जब हम उन से मिले थे दिल के नाज़ुक फूल खिले मस्ती आँखें चूम रही थी सारी दुनिया झूम रही दो दिल थे वो भी दीवाने वो दिन जब हम दूर हुये थे दिल के शीशे चूर हुये थे आई ख़िज़ाँ रंगीन चमन में आग लगी जब दिल के बन में आया न कोई आग बुझाने
  7. १६ . ख़िज़ाँ के दौर में हंगामा-ए-बहार थे हम ख़ुलूस-ओ-प्यार के मौसम की यादगार थे हम चमन को तोड़ने वाले ही आज कहते हैं वो गुलनवाज़ हैं ग़ारतगर-ए-बहार थे हम शजर से शाख़ थी तो फूल शाख़ से नालाँ चमन के हाल-ए-परेशाँ पे सोगवार थे हम हमें तो जीते -जी उसका कहीं निशाँ न मिला वो सुब्ह जिसके लिए महव-ए-इंतज़ार थे हम हुई न उनको ही जुर्रत कि आज़माते हमें वग़र्ना जाँ से गुज़रने को भी तैयार थे हम जो लुट गए सर-ए-महफ़िल तो क्या हुआ ‘साग़र'! अज़ल से जुर्म-ए-वफ़ा के गुनाहगार थे हम.
  8. १६ . ख़िज़ाँ के दौर में हंगामा-ए-बहार थे हम ख़ुलूस-ओ-प्यार के मौसम की यादगार थे हम चमन को तोड़ने वाले ही आज कहते हैं वो गुलनवाज़ हैं ग़ारतगर-ए-बहार थे हम शजर से शाख़ थी तो फूल शाख़ से नालाँ चमन के हाल-ए-परेशाँ पे सोगवार थे हम हमें तो जीते -जी उसका कहीं निशाँ न मिला वो सुब्ह जिसके लिए महव-ए-इंतज़ार थे हम हुई न उनको ही जुर्रत कि आज़माते हमें वग़र्ना जाँ से गुज़रने को भी तैयार थे हम जो लुट गए सर-ए-महफ़िल तो क्या हुआ ‘साग़र'! अज़ल से जुर्म-ए-वफ़ा के गुनाहगार थे हम.
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